‘तमिल-काशी संगमम्’ के अवसर पर
स्वाधीन भारत जिन मनीषियों का चिरऋणी है, उनमें, अदम्य संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित महान कवि, शिक्षक और संपादक सुब्रह्मण्य भारती का नाम शीर्ष पर है। 1921 में मृत्यु से पूर्व भारती का 39 वर्ष का जीवन भारतमाता की आराधना और उसे दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के अदम्य संकल्प का जीवन था।
भारतीय परम्परा में शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द, भारतेन्दु जैसे यशस्वी सर्जकों का जीवनकाल भी अल्प था, पर उनका योगदान इतिहास रच गया। इसी परंपरा में सुब्रह्मण्य भारती की अद्भुत रचना-मेधा और स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदान से भारत परिचित हुआ। विशेष रूप से दक्षिण भारत में उनकी प्रेरक रचनाओं ने अंग्रेज शासन के खिलाफ जनजागरण का अद्भुत कार्य किया। उनकी भारत प्रेम की रचनाओं का ऐसा प्रभाव था कि उन्हें उनके जन्म स्थान रियासत के राजा तथा जनता ने ‘भारती’ उपनाम दिया और इसी उपनाम से वह प्रसिद्ध हो गए।
वस्तुतः भारती के रचना संसार के सृजन की पृष्ठभूमि और स्वाधीनता संग्राम में उनके अदम्य, ऐतिहासिक संघर्ष की प्रेरणा के पीछे काशी की माटी की प्रेरक शक्ति भी थी। काशी में उनका करीब साढ़े तीन साल का प्रवास उनके जीवन में ऊर्जा का कालखंड था। 16 वर्ष की अवस्था में काशी पहुंचे सुब्रह्मण्य अपनी बुआ श्रीमती लक्ष्मी के यहां हरिश्चन्द्रघाट स्थित मकान में रहते थे। यह भवन जीर्ण-शीर्ण दशा में आज भी बरकरार है। ‘भारती’ के 95 वर्षीय भांजे के.वी. कृष्णन् से ‘भारती’ के संबंध में चर्चा श्री कृष्णन् को उद्वेलित करती है। पूर्ण चेतना के साथ श्री कृष्णन् ‘भारती’ को समाज और सरकार की ओर से अब तक कोई विशेष महत्व न मिलने के क्षोभ के साथ स्वयं को ‘भारती की परंपरा अंश’ मानकर गर्व की अनुभूति करते हैं। हाल के वर्षों में भारती को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान प्रदान करने से वे संतुष्ट हैं पर, वे भारती को ‘भारतरत्न’ सम्मान के प्रति आशान्वित हैं।
काशी में ही सुब्रह्मण्य में कविता का संस्कार अंकुरित हुआ। काशी में ही उन्होंने अपनी पहली कविता की रचना की। काशी के ही ऐतिहासिक जयनारायण विद्यालय में माध्यमिक शिक्षा ग्रहण की। वाराणसी प्रवास के दौरान ही राष्ट्रप्रेम की चिंगारी उनके हृदय में फूट पड़ी। साल 1900 आते-आते ‘वंदे मातरम्’ गीत और महर्षि अरविन्द से प्रेरणा लेकर उन्होंने कांग्रेस के ‘गरमदल’ की वैचारिकी को आत्मसात् कर लिया। पुलिस ने काशी में उनकी गिरफ्तारी के अनेक प्रयास किये, पर असफल रही। काशी से वह पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) गए और यहाँ से अपने प्रकाशन ‘साप्ताहिक इंडिया’ के माध्यम से आजादी के संघर्ष में अपनी प्रेरक रचनाओं की आहुति दी। खासकर स्त्री समुदाय के प्रति भेदभाव समाप्त करने का आह्वान इनकी रचनाओं का प्रमुख स्वर था। जातिभेद की समाप्ति तक देश की स्वाधीनता के लिए उन्होंने राष्ट्रभक्ति और बलिदान के भाव से संपूरित अपनी रचनाओं का सृजन किया।
‘भारती’ का रचना संसार वैविध्यतापूर्ण और साहित्य का विपुल भण्डार है। ‘स्वदेश गीतांजल’ (1908) और ‘जन्मभूमि’ (1909) अधिकांशतः उनके काशी प्रवास के दौरान सृजित तमिल भाषा की कालजयी रचनाओं का संग्रह है। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी और भारतवासियों को अंग्रेजों के विरुद्ध जागृत किया। इसके साथ ही शिक्षा के प्रसार हेतु बाल विद्यालय और कल कारखानों को आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित करने पर भी वह बल देते रहे। विश्व की प्राचीन भाषा तमिल में उन्होंने ‘जन्मभूमि’, ‘पांचाली सप्तक’ तथा ‘गीतांजलि’ की रचना की, परन्तु उन्होंने अपनी रचनाओं में आधुनिक तमिल का प्रयोग किया और उनकी रचनाओं में प्रयुक्त यह आधुनिक तमिल आज जनभाषा का रूप ले चुकी है।
राष्ट्रप्रेम और समर्पण यद्यपि उनकी रचनाओं का मूलस्वर था, परन्तु उनकी अनेक रचनाओं के मूल विषय पौराणिक, ऐतिहासिक भी हैं। हिंदी समीक्षक डा0 राम विलास शर्मा की दृष्टि में ‘सुब्रह्मण्य भारती’ का साहित्यिक योगदान ऐतिहासिक और प्रेरक है। अल्पायु में ही उन्होंने रचनाओं से भारतीय साहित्य को अनुपम रचनाओं के उपहार दिए। आज आवश्यकता है कि भारत की सभी भाषाओं में ‘भारती’ के व्यक्तित्व और कृतित्व का प्रकाशन हो तो यह नई पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक होगा।’
महामना मदनमोहन मालवीय ने सुब्रह्मण्य भारती को युवा कांग्रेस सदस्य बनाया और बाद में ‘भारती’ ने राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेते हुए ‘नरमदल-गरमदल’ विवाद में गरम दल का समर्थन कर सभी को चौंका दिया था। चेन्नई में ‘स्वदेश मित्रन्’ के संपादकीय विभाग में वरिष्ठ पदों पर रहकर उन्होंने ‘स्वदेशी आंदोलन’ और आजादी के संघर्ष को पूर्ण समर्थन प्रदान किया। शहीद भगत सिंह ‘भारती’ के आदर्श थे। भगत सिंह से प्रेरणा लेकर सुब्रह्मण्य भारती ने सिर पर पगड़ी बांधना शुरू किया था। सुब्रह्मण्य भारती की गिरफ्तारी और कालापानी की सजा के दौरान अंडमान निकोबार स्थित सेल्युलर जेल में लिखी गई उनकी कविताएं गुलामी के खिलाफ आग उगलती रचनाएं हैं। वह साहित्य को राष्ट्रीय पुनर्जागरण का माध्यम मानते थे।
आजादी का मंत्र
सुब्रह्मण्य भारती ‘वंदेमातरम्’ को आजादी का मंत्र मानते थे , उनका यह तमिल कथन- ‘हम गुलामी रूपी बंधन की जकड़ में पड़कर बीते हुए दिनों के लिए मन में लज्जित होकर द्वंद्वों एवं निंदाओं से निवृत्त होने के लिए इस गुलामी की स्थिति को यूं कहते हुए धिक्कारने के लिए अपने संबोधन में हमेशा ‘वंदेमातरम्’ का उद्घोष करते रहेंगे।’ ‘भारती’ के यह प्रेरक उद्गार दक्षिण में ही नहीं पूरे देश में आजादी की प्रेरणा के स्रोत बन गये।
राष्ट्रमुक्ति की प्रबल कामना, सामाजिक नवजागरण एवं नवोत्थान के स्वप्नों से युक्त भारती तमिल प्रदेश में नवजागरण का शंखनाद करते हुए सुषुप्त तमिल जन समाज के हृदय में राष्ट्रीय चेतना को उद्दीप्त कर प्रदेश को नवोत्थान का मार्ग दिखाने में अग्रदूत के रूप में आविर्भूत हुए। जीवन के 39 वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने उत्साह, उमंग और नई प्रेरणा से युक्त होकर तमिल समाज का जो मार्गदर्शन किया, वह तमिलनाडु के इतिहास के पृष्ठों में अंकित है। वह तमिलनाडु के पहले कवि थे, जिनके मन और मस्तिष्क दोनों में अखिल भारतीय चेतना जागरित होकर पल्लवित हुई। उनके द्वारा रचित तमिल की राष्ट्रीय कविताओं में उनकी यह विशाल दृष्टि तथा मानसिकता परिलक्षित होती है। समस्त भारत की प्राचीन गौरवगरिमा को ‘आर्य संपत्ति’ के रूप में मानकर उसका गुणगान अपने गीतों में बड़े अभिमान और गर्व के साथ किया। गीता का तमिल काव्यानुवाद आध्यात्म, भाषा तथा साहित्य के क्षेत्र में उनकी महती सेवा मानी जाएगी।
सुब्रह्मण्य भारती का मन संकुचित वृत्ति से सर्वथा दूर था। प्राचीन और नवीन दोनों में जो स्पृहणीय एवं ग्रहणीय तत्व है, जो ग्राह्य हैं, उन्हें स्वीकारने में वह अन्य साहित्यकारों से बहुत आगे माने जाते हैं। परम्परा में रची बसी प्रगतिशील चेतना उनकी मानसिकता का मूल थी। तमिल भाषा को पुनरुज्जीवित कर उसमें नये प्राण और नई स्फूर्ति प्रदान करने में वह अग्रणी थे । तमिल भाषा का सर्वतोमुखी विकास एवं प्रगति ही उनका शुभ संकल्प रहा। इस प्रकार वह राष्ट्रप्रेमी, राष्ट्रमुक्ति की प्रबल कामना से युक्त कवि के साथ-साथ मातृभाषा की उन्नति में गहन उत्साह प्रदर्शित करने वाले रचनाकार थे । ‘भारती’ का मातृभाषा प्रेम, राष्ट्रप्रेम और अध्यात्म इन तीनों का समन्वित रूप अत्यंत आकृष्ट करने वाला है। उनके क्रांतिकारी विचार आज भी प्रासंगिक हैं।
ऐतिहासिक अवदान का स्मरण
सुब्रह्मण्य भारती का अधिकारपूर्ण ज्ञान उन्हें तत्कालीन शीर्ष विद्वानों-रचनाकारों की पंक्ति में प्रतिष्ठित करने का आधार बना। पद्य के साथ ही गद्य विधा और तमिल पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके ऐतिहासिक अवदान का स्मरण एक प्रेरक प्रसंग है। महाकवि भारती के निधन की शताब्दी (11 दिसम्बर, 2021) के अवसर पर भारत राष्ट्र की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी स्मृति में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में सुब्रह्मण्य भारती पीठ (चेंबर) की स्थापना की घोषणा करते हुए दो करोड़ रुपये की अवस्थापना निधि की स्थापना का संकल्प घोषित किया जो एक कृती साहित्यकार के राष्ट्रीयव्यक्तित्व को अकादमिक श्रद्धांजलि है। सोमनाथ कारीडोर उद्घाटन कार्यक्रम मे प्रधानमंत्री द्वारा उद्धृत ‘भारती’ की कविता है।
यह है भारत देश हमारा:
चमक रहा उतुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है।
जोड़ नहीं धरती पर जिसका, यह नगराज हमारा ही है।
नदी हमारी ही है गंगा, प्लवित करती मधुरस धारा।
बहती है क्या कहीं और भी, ऐसी पावन कल-कल धारा।
सम्मानित जो सकल विश्व में, महिमा जिनकी बहुत रही है।
अमर ग्रन्थ वे सभी हमारे, उपनिषदों का देश यही है।
गाएंगे यश हम सब इसका, यह है स्वर्णिम देश हमारा।
आगे कौन जगत में हमसे, यह है भारत देश हमारा!.....
प्रो. राम मोहन पाठक
(पूर्व कुलपति, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, चेन्नई और पूर्व निदेशक, मदनमोहन मालवीय हिन्दी पत्रकारिता संस्थान, म.गा.काशी विद्यापीठ, वाराणसी)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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